प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने भूमंडलीकरण के दौर में पार्टी और सरकार के मंडलीकरण का दांव चला है।
जिसे राजनीतिक विश्लेषक मोदी का मंडल-दो भी कह रहे हैं और उनका दावा है कि जैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल-एक प्रयोग ने भारतीय राजनीति और सामाजिक व्यवस्था का पूरा चरित्र बदल दिया उसी तरह मोदी का मंडल-दो फिर कोई नया गुल खिला सकता है।
कहा जा सकता है कि वीपी सिंह की ही तरह नरेंद्र मोदी ने भी एक बड़ा सियासी जोखिम लिया है, जो भाजपा और संघ के हिंदुत्व की राजनीति से मेल नहीं खाता है।
फर्क यही है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सवर्ण थे और मंडल के कारण उन्हें सवर्णों का गुस्सा झेलना पड़ा। वहीं पिछड़ों ने उनके मुकाबले मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेताओं को तरजीह दी।
लेकिन मोदी खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं इसलिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुकाबले वह ज्यादा मजबूत विकेट पर हैं और उनके सामने इस समय सामाजिक न्याय की राजनीति के पुराने योद्धाओं जीवन के सांध्यकाल में हैं और लगभग हो चुके हैं।
वर्तमान में कोई सामाजिक न्याय की धारा का कोई नया तेज तर्रार नेता दूर दूर तक नहीं दिख रहा है। लेकिन उनके इस दांव से संघ और भाजपा के अगड़े जनाधार के नाराज होने के खतरे की भी आशंका है।
पहले पिछड़े वर्ग को मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट में 27.50 फीसदी आरक्षण और फिर पिछड़े वर्गों की पहचान करने का अधिकार फिर से राज्यों को देने के लिए संसद द्वारा पारित कराया गया।
संविधान संशोधन भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी सरकार मास्टर स्ट्रोक है या डिजास्टर स्ट्रोक, इसे लेकर बहस तेज हो गई है।
दरअसल उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में अगले साल शुरु में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर पिछड़ों को लुभाने के लिए उठाए गए इस कदम की अगली तार्किक परिणीति जाति आधारित जनगणना, आरक्षण कोटे की सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की लगी 50 फीसदी की पाबंदी को संसद द्वारा कानून पारित करके खत्म करना और निजी क्षेत्र को भी आरक्षण के दायरे में लाने की मांगों के तेज होने के रूप में सामने आएंगी।
राजनीति की भाषा में कहा जाए तो सरकार के इस कदम से भानुमती का पिटारा खुल सकता है जिससे भारतीय समाज में जबर्दस्त उथल पुथल पैदा हो सकती है जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदुत्व की वैचारिक अवधारणा तार तार हो सकती है।
पिछड़े वर्गों के प्रति अचानक उमड़े भाजपा के प्रेम को मंडल दो भी कहा जा रहा है और इसे राजनीति में मंडलीकरण की प्रक्रिया के पूरे होने के रूप में देखा जा रहा है।
क्योंकि इसके पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में भी जो तरजीह पिछड़े वर्गों और दलितों को दी गई है,उससे भी भाजपा की कमंडल राजनीति को मंडल राजनीति की तरफ खिसकते दिखाई दी है।
यहां तक कि 2015 में बिहार चुनाव से पहले भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण पर पुनर्विचार की जरूरत है और तत्कालीन राजद जदयू कांग्रेस महागठबंधन के नेता लालू प्रसाद यादव ने उनके इस बयान को मुद्दा बनाकर बिहार में भाजपा और एनडीए का सफाया कर दिया था।
उसके उलट अब संघ के सर कार्यवाह (जिन्हें संघ का संघ प्रमुख के बाद संघ का कार्यकारी प्रमुख माना जाता है) दत्तात्रेय होसबोले ने कहा है कि आरक्षण हर हाल में जारी रहना चाहिए और जब तक समाज में असमानता है आरक्षण की जरूरत है।संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी आरक्षण का समर्थन कर दिया है।
अब सवाल है कि मोदी सरकार के मंडल दो कहने जाने वाले तीनों कदमों से भारतीय जनता पार्टी को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से लेकर 2024 तक जितने भी चुनाव होंगे जिनमें लोकसभा चुनाव भी शामिल है, में वो अपेक्षित राजनीतिक लाभ मिलेगा जिसकी उम्मीद में ये कदम उठाया गया है।
दरअसल संघ और भाजपा की हिंदुत्व की विचारधारा देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज को एक इकाई के रूप में देखता है और उसके मुताबिक उसकी सिर्फ एक पहचान है जो हिंदू ही हो सकती है।
इसीलिए संघ के तमाम विचारक और संघ प्रेरित इतिहासकारों ने पिछले करीब एक दशक से कई पिछड़ी और दलित जातियों के अतीत में क्षत्रिय होने का दावा भी करना शुरु कर दिया है जिन्हें मुस्लिम और अंग्रेज शासकों ने इसलिए पिछड़ा या दलित बना दिया क्योंकि इन जातियों के शासकों के साथ ये जातियां मुस्लिम हमलावरों और अंग्रेजों से लड़ती रही थीं।
संघ के इन इतिहासकारों की मान्यता है कि अस्पृश्यता (छुआछूत) और सामाजिक गैर बराबरी प्राचीन हिंदू समाज में नहीं थी और ये मध्य युगीन मुस्लिम शासकों की देन है।
अपनी इन मान्यताओं से संघ के दो उद्देश्य सधते हैं। पहला ये कि जिन दलित और पिछड़ी जातियों को वह क्षत्रिय साबित करते हैं उनके अंदर सामाजिक श्रेष्ठता का भाव जगाकर उनको शेष दलित और पिछड़ी जातियों से अलग करके दलित और पिछड़ी जातियों की एकता कमजोर कर सकते हैं।
दूसरे इन जातियों की पहचान उनकी जाति की जगह हिंदू बनाकर उन्हें वृहद हिंदुत्व के छाते के नीचे लाया जा सकता है। दलित चिंतक रविकांत सवाल करते हैं कि संघ इन दलित और पिछड़ी जातियों को सिर्फ क्षत्रिय ही क्यों बनाता है, किसी को ब्राह्ण क्यों नहीं बनाता और जिन जातियों के पूर्वजों के संघ चिंतक क्षत्रिय बताते हैं क्या क्षत्रिय समाज उनके साथ रोटी बेटी का रिश्ता कायम करेगा।
पिछड़े वर्गों के सामाजिक और शैक्षिक उत्थान के लिए पिछले कई वर्षों से काम कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्वान प्रो. लक्षमण यादव कहते हैं कि ये दोनों जो कदम केंद्र सरकार ने उठाए हैं वह पिछड़े वर्गों के भाजपा से दूर होने की आशंका को देखते हुए उठाए गए हैं।
क्योंकि चाहे नीट में आरक्षण हो या राज्यों को पिछड़े वर्गों की पहचान का अधिकार, केंद्र की मोदी सरकार ने ही इन्हें 2018 में समाप्त किया था।
लक्षमण यादव कहते हैं कि मोदी सरकार की असली अग्निपरीक्षा है जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करना, आरक्षण की सीमा को बढ़ाना और निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की मांगों पर होगी।
क्योंकि अभी जो भी उसने दिया है वह वही है जो सरकार ने पिछड़ों से छीना था। यादव के मुताबिक अब बात सिर्फ यहीं तक रुकने वाली नहीं है।
अब जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग बढ़ेगी।वैसे भी एनडीए के सहयोगी दलों ने भी यह मांग शुरु कर दी है।
बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी दोनों के सुर एक हैं।लक्षमण यादव का यह भी कहना है कि बात इससे भी आगे बढ़ेगी और आरक्षण पर लगी पचास फीसदी की सीमा खत्म करने या बढ़ाने का दबाव बनेगा और जब यह मांगे पूरी हो जाएंगी तो निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में भी आरक्षण लागू करने की मांग तेज होगी।
दरअसल भारतीय समाज में प्राचीन काल से हिंदू एक ईकाई के रूप में पहचान नहीं रही है।ऊपर से नीचे तक जातियों उपजातियों गोत्रों और शाखाओं में विभाजित हिंदू समाज में सबसे मजबूत पहचान जातियों की रही है।
जातीय आग्रह धार्मिक और सांस्कृतिक आग्रहों से ऊपर होते रहे हैं।बावजूद इसके कि बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, सिख धर्म, और इसाईयत ने जातियों के बंधन तोड़ कर आने वालों को अपनाया, लेकिन इन मतों के मानने वालों में भी जातियां औऱ उपजातियां उसी तरह प्रभावशाली रहीं जैसे सनातन हिंदू धर्म में।
जैसा कि बौद्ध होते वक्त डा.भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि इस देश में धर्म तो बदला जा सकता है लेकिन जाति नहीं बदली जा सकती।यही वजह है कि हिंदू से अन्य धर्मों में गए लोगों के उपनाम वही रहे जो उनके हिंदू होने के वक्त थे।
एक समय दिल्ली में सामाजिक न्याय की लड़ाई के अगुआ रहे डा.अनिल यादव कहते हैं कि दरअसल भारतीय जनता पार्टी की मूल विचारधारा सामाजिक न्याय की नहीं हिंदुत्व की है।
भाजपा हिंदुत्व और सामाजिक न्याय को मिलाना चाहती है। दलित चिंतक रविकांत के मुताबिक भाजपा पिछड़ों और दलितों को आगे तो बढ़ाती है लेकिन उसके पिछड़े और दलित नेता वही भाषा बोलते हैं जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के विचार मानने वालों की होती है।
संघ पिछड़ों और दलितों का हिंदूकरण करके उन्हें हिंदुत्व के रंग में रंगना चाहता है और उसकी कोशिश है कि हिंदु समाज में जातियां नहीं बल्कि हिंदू एक पहचान बने।
यानी इतिहास में पांच हजार साल से चली आ रही सामाजिक पहचान की व्यवस्था को संघ हिंदू पहचान में बदलकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने ध्येय को पूरा करना चाहता है।
इसलिए जाति के आधार पर जनगणना को स्वीकार करना उसके लिए आत्मघाती हो सकता है। क्योंकि इससे हिंदू पहचान पर फिर जातीय पहचान भारी पड़ जाएगी और हिंदुत्व के बिखरने का खतरा पैदा हो जाएगा।
साथ ही अगर आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाती है और निजी क्षेत्र को भी आरक्षण के दायरे में लाया जाता है तो भाजपा और संघ का मूलाधार सवर्ण जातियां खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगी।
क्योंकि उन्हें लगेगा कि जिस भाजपा और संघ को उन्होंने अपने हितों का संरक्षक समझकर कांग्रेस और सामाजिक न्याय की ताकतों के खिलाफ समर्थन दिया, वह उनके हितों को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए कुर्बान कर रही है
अगर सवर्णों को नाराज न करने के लिए भाजपा सरकार जातिगत जनगणना, आरक्षण सीमा में बढ़ोत्तरी और निजी क्षेत्रों में आरक्षण की मांग नहीं मानती है तो पिछड़ों के लिए उसका सारे किए धरे पर पानी फिर जाएगा।
भाजपा के एक सवर्ण नेता का कहना है कि इतनी दूर तक जाने की जरूरत नहीं है, अभी तो पार्टी को उत्तर प्रदेश औऱ अन्य विधानसभा चुनावों में पिछड़े वर्गों विशेषकर गैर यादव पिछड़ी जातियों को सपा बसपा में जाने से रोकने के लिए यह जरूरी था और इसका लाभ 2022 के चुनावों में भाजपा को मिल सकता है।
आगे क्या होगा यह बाद में देखा जाएगा। वहीं राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कुल मिलाकर मंडल दो को शुरु करके भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत बड़ा जोखिम मोल लिया है, जिसके राजनीतिक नतीजे कुछ भी हो सकते हैं।
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