आइये जाने प्रोनिंग तकनीक के बारे में जो कोरोना वायरस के इलाज में प्रयोग हो रही

आइये जाने प्रोनिंग तकनीक के बारे में जो कोरोना वायरस के इलाज में प्रयोग हो रही

दुनिया भर में कोरोना वायरस के मरीजों की संख्या 26 लाख से भी ज्यादा हो गई है । कोरोना वायरस के लिए कोई एक निश्चित दवा और टीका अभी तक निजात नहीं हो पाया है । दुनिया भर में इस वायरस के इलाज के लिए वेंटिलेटर पर प्रोनिंग तकनीक को डॉक्टर इस्तेमाल करने का जोर दे रहे हैं । ऐसे में इस तकनीक के बारे में जानना जरूरी है ।

दरअसल प्रोनिंग तकनीक एक ऐसी तकनीक है जिसमें मरीजों को उनके पेट के बल लिटा दिया जाता है । इसमें मरीजों को पेट के बल आगे की तरफ लेटाया जाता है और अत्याधुनिक वेंटिलेटर पर रखा जाता है जिससे उन्हें सांस लेने में काफी मदद मिलती है  । यह सांस के इलाज की बेहद पुरानी तकनीक है और इसे ही प्रोन कहा जाता है ।

इस तकनीक से सबसे ज्यादा लाभ सांस के मरीजों को होता है क्योंकि पेट के बल प्रोनिंग तकनीक की तरह लेटने से फेफड़े पर  तब ज्यादा मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचती है लेकिन यह तकनीक आसान होने के साथ खतरनाक भी होती है ।

मरीजों को जब प्रोन की पोजीशन में  काफी लंबे समय तक लिटाया जाता है तो मरीजों के फेफड़े में जमा तरल पदार्थ फैलने लग जाता है और इससे सांस लेने में मदद मिलती है और आसानी होती है ।

इसलिए इस तकनीक का इस्तेमाल कोरोना वायरस के मरीजों के लिए भी किया जा रहा है क्योंकि कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों में  सांस से जुड़ी समस्या देखने को मिल रही और मरीज के फेफड़े तक जब पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती है तो उनके लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है  । डॉक्टर मरीजों को ऑक्सीजन देते हैं लेकिन वह पर्याप्त मात्रा में उनके फेफड़े तक नहीं पहुंच पाती तो ऐसे में उन्हें पेट के बल लेटाया जाता है जिसमें उनका चेहरा नीचे की तरफ होता है ।

इससे फेफड़ा फैल कर बढ़ जाता है क्योंकि जब इंसान के फेफड़े का एक बहुत बड़ा भारी हिस्सा पीठ पर होता है और पीठ के बल लेटने पर फेफड़े तक ऑक्सीजन पहुंचने की संभावना कम हो जाती है तो ऐसे में मरीज को प्रोन की अवस्था में लिटा कर फेफड़े तक ज्यादा मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचाई जाती है ।

इस तकनीक से कई मरीजों को फायदा भी मिल रहा है  । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी 12 से 16 घंटे तक की  सिफारिश की थी । हालांकि इस तकनीक को इस्तेमाल करने के लिए अतिरिक्त विशेषज्ञता के साथ ही प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता होती है  । प्रोनिंग तकनीक जितनी आसान है उतनी ज्यादा खतरनाक है। इस प्रक्रिया के लिए मरीजों को पेट के बल लेटाने में काफी ज्यादा समय लगता है और इसके लिए अनुभव लोगों की जरूरत होती है ।

प्रभावी ढंग से इस प्रक्रिया को करने के लिए 4 से 5 विशेषज्ञों की जरूरत होती है और करोना वायरस के संक्रमण के बीच मुश्किल और बढ़ जाती है क्योंकि अस्पताल में स्टाफ की पहली से ही कमी होती है इसके लिए प्रोनिंग के लिए एक अलग से टीम अस्पताल में तैयार की जा रही है ।

मोटापा भी इसमें सबसे बड़ी बाधा है साथ ही हार्ट से जुड़े मरीजो के साथ इसमें अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है नही हो इस तकनीक के इस्तेमाल से हार्ट अटैक की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है साथ ही सांस मे भी अवरोध उत्तपन्न होने का खतरा रहता है । सबसे पहले इस तकनीक का इस्तेमाल होने से 1970 के दशक में किया गया था उसके बाद दुनियाभर के अस्पतालों में 1986 के बाद से इसका इस्तेमाल होने लगा ।

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