
मार्च का महीना,सर्दियों की केंचुल उतार गर्मियों का लिबास ओढ़ने का महीना है। रक्तपिपासु मच्छरों का खूनी खेल इसी महीने से जोर पकड़ता है।
मुझे नही मालूम उनका प्रजनन काल कब होता है लेकिन उनकी बढ़ती जनसंख्या देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि कई बांके मच्छर पिता बन चुके होंगे। मादाएं,शिशु मच्छरों को पाल-पोसकर मनुष्यों का खून चूसने लायक बना चुकी होंगी।
मच्छर मनुष्य की भांति मोहग्रस्त नही होता। मच्छर दम्पति एक सीमित अवधि तक ही शिशु मच्छर को पास रहने देते हैं।बाद में उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता है-कमाओ,खाओ,खून पियो और अपनी अल्पकालिक लाइफ एन्जॉय करो।
मच्छरों के पास 2 ही काम हैं-खून पीना और खानदान बढ़ाना। चार दिन की जिंदगी वाला मुहावरा उन्ही के लिए है तभी तो वह हर पल को एन्जॉय करते हैं। वह मनुष्यों की भांति कल की चिंता नही करते।जो कुछ है बस इसी पल है इसलिए खून चूसने में कोई कोर-कसर नही छोड़ते।
मच्छर से ज्यादा सेकुलर मैंने दूसरा जीव नही देखा। वह खून चूसने में हिन्दू-मुस्लिम, बीजेपी-कांग्रेस, भक्त-चमचा में भेद नही करता। सबको एकसमान भाव से काटता है। सर्वधर्म समभाव मच्छरों से सीखा जाना चाहिए।
भारतीय नेताओं को मच्छरों से सीख लेना चाहिए। भले ही जनता का खून चूस लो लेकिन कम से कम भेदभाव तो न करो,आपस मे लड़वाकर दंगे तो न करवाओ।
मैं सोचता हूँ मच्छर मन बहलाने के लिए क्या करते होंगे। अपनी बमुश्किल 2 सप्ताह की जिंदगी को खून चूसने के अलावा एन्जॉय कैसे करते होंगे। मनुष्यों की तरह उनके पास स्मार्टफोन, tv, रेडियो तो है नही।शायद मनुष्य के कान में धुन बजाना ही उनका खुद को एंटरटेन करने का एकमात्र जरिया हो।
नर मच्छर की बजाय मादा मच्छर अधिक दिनों तक जीती है।मनुष्य का खून भी मादा मच्छर ही चूसती है (प्रकृति का सिस्टम हर जगह सेम है )।
नर मच्छर तो बेचारे पेड़-पौधों और फलों का रस चूसकर ही जिंदा रह लेते हैं लेकिन मादा मच्छर का बगैर खून पिये काम नही चलता।
मैंने कहीं पढ़ा था कि नर मच्छर अपनी प्रेमिका को जमीन ही नहीं हवा में भी प्रपोज करते हैं। यदि प्रपोजल स्वीकार हो गया तो मनुष्यों की शामत आ जाती है। ढेर सारे शिशु मच्छर पैदा होकर “मनुष्यों को हिजड़ा बनाने” के लिए फिजाओं में उतर आते हैं।
मादा मच्छर अपने जीवनकाल में सिर्फ एक बार संसर्ग करती है जबकि नर मच्छर इस मामले में ठरकी होते हैं। शायद इसी कारणवश नर मच्छर संसर्ग के बाद 3-5 दिन ही जीवित रहता है।
मच्छरों को अनिद्रा पसंद है। न सोएंगे न सोने देंगे। उनका काम ही है-नींद तोड़ना। इसी उद्देश्य से वह कान के पास आकर दोहराते हैं-“उठ जाग मुसाफिर भोर भई,दिन रैन कहाँ तू सोवत है”
मनुष्य जब नही जागता तब चेतावनी देते हुए फिर से भुनभुनाते हैं-
“जो सोवत है वो खोवत है, जो जागत है वो पावत है”
जब इतने में भी मनुष्य नही जागता तब “अहिंसा परमो धर्म:” के बाद की पंक्ति” धर्म हिंसा तथैव च:”दोहराते हुए आदमी की देह में अपना नुकीला वज्रासन पैवस्त कर देते हैं।
आदमी अकबकाकर उठता है, मच्छरों को मन ही मन कुछ फूहड़ गालियों से नवाजता है और फिर ऊँघने लगता है। अब भला मच्छर कहाँ मानने वाले हैं। वह इधर-उधर की हवा खाकर फिर से नींद तोड़ने के उपक्रम में लग जाते हैं।
तमाम अवधारणाओं और अनुसन्धानों से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि मनुष्य के लिए मच्छर भले ही दुश्मन हो लेकिन मच्छरों के लिए मनुष्य कतई दुश्मन नही है।
वह मनुष्य को सबसे अजीज मानते हैं तभी तो खून चूसते हैं। बच के रहिये।गिलोय और पपीते के पत्ते खोजने की बजाय मच्छरदानी का प्रयोग कीजिए वरना मच्छर बड़े निर्मोही होते हैं।